Monday, 30 December 2024

Revisiting the Bangladesh Story

 हमने क्या खोया, हमने क्या पाया? Is it the time to revisit our success story of creating Bangladesh? 

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Our books on India's freedom struggle, particularly the one published by the National Book Trust and authored by Bipan Chandra, Amlesh Tripathi and Barun De, would argue against the two nations theory that religion could not be the basis of nationhood.


They would support this argument by quoting the example of Bangladesh, which broke out of Pakistan in spite of both being Muslim majority countries. Well, even without the formation of Bangladesh there were too many Islamic countries. So, the point could have been illustrated even without quoting the example of Bangladesh. There are things beyond the territorial boundaries of a nation state. How did the word 'Christendom' originate? It defined the entire Christian population as one brotherhood. Does the Pope not enjoy the authority over the Catholics all over the world?What was the authority of the "Khalifa"? Who would a Muslim obey if there was a conflict between the nation state and the Caliph's decree?


So, territorial boundaries apart, there have been supranational authorities based on faith. The very concept of "Ummaah", meaning the whole community of Muslims is bound together by ties of religion, is supranational.


So, do we need to revisit the outcome of the 1971 war through which we 'liberated' Bangladesh? We have been thinking all along that breaking up Pakistan was a huge achievement and that we have created a nation which will remain perennially indebted to us for its creation. But the most recent Bangladesh creation day, Vijay Divas for India, showed that the Bangladeshis are an ungrateful lot. Many videos suggested that instead of thanking India they were throwing scorn and abuses only. 


Why did we expect otherwise? A fiercely secular republic established by Kemal Pasha Ataturk was turned on its head by Reception Tyep Erdogan to become another Islamist country. So, almost certainly, a secular republic in a Muslim majority country is a utopia. Bangladesh has only reaffirmed it.


We, as a nation, have been gloating over the disintegration of Pakistan. But what is our gain from their loss? 


Nothing much, it seems. Through the Simla agreement it was agreed that India and Pakistan would "settle their differences by peaceful means through bilateral negotiations". India thought that this would make the contentious PoK issue a bilateral matter, but Pakistan has not agreed to it and has been trying to internationalise the matter from time to time. Apart from this we returned 93,000 prisoners of war without securing any releases from Pakistan. So, as it appears, instead of one hostile Islamist country on both sides, we are having two hostile Islamist countries on our two sides. And a huge number of infiltrators is a bonus.


P.S.: I request my friends not to view this post as a criticism of the then government or PM. The 1971 war is a point of general consensus among Indians.



Monday, 16 December 2024

काशी के कंकड़ शिव शंकर समान हैं

 काशी के कंकड़ शिव शंकर समान हैं

यह वाक्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के एक लेख से लिया गया है। पुराने काशी वासी अक्सर इसका उल्लेख किया करते थे। इस एक वाक्य में काशी की सांस्कृतिक विरासत को समाहित किया जाता था।

मुझे यह वाक्य क्यों याद आया और मैं यह लेख क्यों लिख रहा हूँ? दरअसल पिछले एक दशक में काशी का बहुत ‘विकास’ हुआ है। इसके उदाहरण जगह जगह देखने को मिलते हैं। सड़कें चौड़ी हो गई हैं, जगह जगह फ्लाईओवर बन गए हैं, घाटों का जबर्दस्त सुंदरीकरण हो गया है, विश्वनाथ मंदिर के परिसर का विस्तार और सुंदरीकरण हो गया है। और भी बहुत कुछ है। 2014 से यह देश के प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र है, इसलिए वी आई पी कांस्टीट्यूएंसी है। निस्संदेह “ease of living” के नजरिए काशी ने अप्रतिम प्रगति की है और इस पर हर किसी को खुश होना चाहिए।

लेकिन “काशी” क्या एक शहर मात्र है? पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि विकास की परतों के नीचे इस शहर की संस्कृति की अद्वितीयता दब सी गई है।

मेरे जैसों के लिए काशी मात्र एक शहर कभी नहीं रहा, यह एक जीवन्त चरित्र, एक “organism” रहा है। और यही काशी को काशी बनाता है, जो किसी अन्य शहर, मसलन चंडीगढ़, गाजियाबाद, मेरठ, बरेली से भिन्न है।

अब फिर आते हैं भारतेन्दु के वाक्य पर। हर मुहल्ले, हर घाट के पीछे एक इतिहास है। लहुराबीर नाम कैसे पड़ा? चेतगंज नाम कैसे पड़ा? गायघाट क्यों कहा गया? पुरानी पीढ़ी के लोग हर स्थान की कहानी जानते थे जो किसी स्थान देवता या किसी जननायक से जुड़ी होती थी। और इसी से जुड़े होते थे पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठान और उत्सव। तुलसीघाट की नाग नथैया, चेतगंज की नक्कटैया, नाटी इमली का भरत मिलाप, सावन में दाताराम नागर से जुड़ी कजरी और जलेबा वगैरह। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि हम “क्या पाया” पर तो ध्यान देते हैं, लेकिन “क्या खोया” कि चर्चा नहीं होती।

मैं राजघाट / प्रह्लाद घाट में रहा हूं और भैरोनाथ, विशेश्वर गंज, मैदागिन, बड़ा गणेश और दारानगर जैसे मोहल्लों के आस पास बड़ा हुआ हूं। मैं प्रह्लाद घाट से जुड़ी, और अब प्रायः लुप्त हो चुकी, परम्परा का ज़िक्र करना चाहता हूं।

प्रह्लादघाट पर गंगा तट पर हर साल दो दिनों की नृसिंह लीला हुआ करती थी। जो वैशाख के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को शुरू होती थी और चतुर्दशी को नृसिंह जयंती को खंभा फटने के साथ संपन्न होती थी। होने को यह अब भी होती है, दो दिन के स्थान पर एक दिन। लेकिन इसमें रुचि कुछ परिवारों तक सीमित है और पैट्रोनेज के अभाव में यह सिमट गई है। प्रह्लाद घाट की सीढ़ियों के ऊपर भगवान नृसिंह का एक मन्दिर भी है जो प्रायः उपेक्षित रहता है।

(२)

काशी की कहानी में एक वर्ग था काशी के गुंडों का। समय के साथ प्रचलित रूप में यह शब्द सिर्फ़ नकारात्मक आभास ही कराता है। और अंग्रेज़ी में अगर इसके समानार्थी ढूंढेंगे तो “goon”, “gangster” और “rascal” जैसे शब्द ही मिलेंगे।

किसी बाहर वाले के लिए यह मानना कठिन होगा कि काशी के गुंडों में हीरोइज़्म की एक परम्परा थी। यह एक ऐसा वर्ग था जो अन्याय और अराजकता की प्रतिक्रिया स्वरूप बागी हो जाता था। जय शंकर प्रसाद की कहानी “गुंडा” कुछ यूं कहती है:

“गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्मदर्शन के वादविवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्दसे हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णवधर्म भी उस विशृंखलता में, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्रबल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंहवृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राणभिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।“

प्रसाद की कहानी के नायक नन्हकू सिंह तो साहित्यकार द्वारा रचे गए पात्र थे। किन्तु शिव प्रसाद मिश्र “रुद्र काशिकेय” ने अपनी कालजई कृति “बहती गंगा” में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की काशी के दो वास्तविक चरित्रों, दो गुंडों, दाताराम नागर और भंगड़ भिक्षुक, को नायक के रूप में रखकर लिखा है।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि काशी की एक परम्परागत कजरी (श्रावण मास में गाया जाने वाला लोक गीत) , जो लगभग दो सदी पुरानी है, दाताराम नागर को कालेपानी की सज़ा होने पर उनकी रक्षिता गौनहारिन सुन्दर ने गाई थी। तिथि थी श्रवण के कृष्ण पक्ष की नवमी (वर्ष पक्का नहीं पता) जब नागर को कालेपानी के लिए नाव में बैठाया गया।

(३)

काशी पर बहुत कुछ लिखा गया है। स्कंद पुराण और शिव पुराण दोनों में ही काशी खण्ड है। लेकिन अगर बात आधुनिक लेखन की हो तो मैं दो लेखकों का खास तौर पर ज़िक्र करना चाहूंगा। संयोगवश दोनों ने ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन किया था और कुछ काल के लिये सहकर्मी भी रहे। ये थे पंडित शिव प्रसाद मिश्र ‘रुद्र काशिकेय’ और डॉक्टर शिव प्रसाद सिंह। डॉक्टर सिंह ने काशी पर एक त्रयी (trilogy) लिखी है: ‘वैश्वानर’, ‘नीला चांद’ और ‘गली आगे मुड़ती है’। रुद्र काशिकेय ने एक ही कालजयी पुस्तक लिखी है ‘बहती गंगा’। रुद्र काशिकेय के लिए ‘बहती गंगा’ उसी तरह है जैसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी के लिए ‘उसने कहा था’।

दाताराम नागर का चरित्र ‘बहती गंगा’ के एक अध्याय “नागर नैया जाला काले पनिया रे हरी” का नायक है। मेरा अपने मित्रों से निवेदन है कि यदि आप अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं सदी के मध्य तक लगभग दो सौ वर्षों के काशी के सामाजिक विकास को समझना चाहते हैं तो यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। इस पुस्तक का पहला संस्करण 1951 में प्रकाशित हुआ था। इसके प्राक्कथन में श्री सीताराम चतुर्वेदी ने लिखा है:

“बहती गंगा ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें पिछले दो सौ वर्षों की काशी के मस्तीमय जीवन का सरस विश्लेषण है, जिसके पात्र वास्तविक हैं और जो अपने वास्तविक जीवन में कल्पना को परारुत कर देने वाली घटनाओं की सृष्टि करके उसके सजीव, सक्रिय, अलौकिक, कौतूहल पूर्ण नट बनकर स्वयं उपन्यास का अवतार बनकर जी गए हैं, मर गए हैं; जिनके पौरुष की गाथा पढ़कर आश्चर्य होता है, श्रद्धा होती है और गर्व होता है”

“इस उपन्यास के स्रष्टा पं० शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ इतिहास और हिन्दी साहित्य के तो विलक्षण पंडित हैं ही, साथ ही वे बनारसी जीवन के साक्षात अवतार हैं। काशी का जीवन क्या है और क्‍या रहा है इसे वे जिस सूक्ष्मता के साथ जानते हैं उतना पढ़े-लिखे लोगों में कदाचित्‌ कोई विरला ही जानता हो। उनके उपन्यास में जो सजीवता है उसका कारण यही है कि उन्होंने बलपूर्वक पात्रों को कल्पना करके उन्हें कृत्रिम रंगों से रंगकर आदर्श बनाने का आडम्बर वहीं किया और यही कारण है कि उनका उपन्यास एक नया जीवन और हिन्दी के गौरवमय इतिहास का एक नवीन ज्योतिमय पृष्ठ खोलकर अवतरित हुआ है।“

मेरा आलेख थोड़ा लंबा होता जा रहा है। इसलिए दाताराम नागर पर लौटते हैं। दाताराम नागर कोई काल्पनिक चरित्र (fictional character) नहीं हैं। इनके नाम से जिस कजरी की टेक “नागर नैया जाला काले पनिया रे हरी” है वह दो सौ वर्षों से काशी की परम्परा का हिस्सा बनी हुई है।

वारेन हेस्टिंग्स द्वारा काशी राज्य की लूट और राजा चेतसिंह की दुर्दशा देखकर जिस समय काशी अचेत होने त्वगी तब उनके नालायक बेटे, जो गुण्डे कहलाते थे, सचेत हुए और उन्होंने विदेशी ‘मलिच्छ’ के प्रति घृणा का व्रत लिया । ऐसे लोगों में दाताराम नागर और भंगड़ भिक्षुक प्रमुख थे। उस समय कोई गोली बन्दूक नहीं चलती थी, यह लोग अपने बाहुबल और शारीरिक दक्षता के बल पर जीते थे। इनके अखाड़े होते थे और ये शरीर को बलशाली बनाने और शस्त्र चलाने की शिक्षा लेते थे। इसी अखाड़े की शिष्यपरम्परा में तलवारिया दाताराम नागर हो गए हैं। काल भैरव के मन्दिर के पास, हाटकेश्वर के मन्दिर के बगल में इनका घर था । दरअसल उस इलाके में नागर ब्राह्मणों के कई परिवार थे।

अपने दबंग स्वभाव के कारण वे कुछ लोगों, जो अंग्रेज़ी हुकूमत के पिट्ठू थे, की आंखों में खटकते थे। उनमें एक थे मिर्ज़ापुर के बनकट मिसिर जो एक बाहुबली अपराधी थे और एक था मुंशी फ़ैयाज़ अली जो सरकार का एक छोटा कर्मचारी था।

मुद्दा बना मुहर्रम का दुलदुल का जुलूस। हर साल यह जुलूस बुलानाला, ठठेरी बाज़ार होकर निकलता था जहां मुस्लिम आबादी शून्य थी। कहते हैं, जब विश्वेश्वर गंज की सड़क बन गई तो दाता राम ने भुतही इमली, बुलानाला तथा ठठेरी बाजार वाली गली के रास्ते दुलदुल घोड़े को ले जाने का विरोध किया । उनका कहना था कि जब सड़क बन गईं तब घोड़ा सड़क के रास्ते ले जाना चाहिए। लेकिन फ़ैयाज अली की शह पर जुलूस ज़िद करके उसी रास्ते ले जाया गया। इस पर तलवार चल गईं, दाताराम ने अद्भुत कला प्रदर्शित की। इन्होंने दुलदुल के घोड़े को काट दिया। जुलूस में शामिल कुछ लोग घायल हुए और सभी भाग गए। काशी में दंगे भड़क उठे।

दाता राम नागर पर वारंट निकला । ये कटेसर में बड़ी कठिनाई से पकड़े गए। इनको गिरफ्तार करने गए पुलिस दल के कई लोगों को इन्होंने खाली हाथ लोटे की सहायता से घायल कर दिया।इनको कालेपानी की सज़ा हुई। इन्होंने सज़ा को बहुत शालीनता और साहस के साथ स्वीकार किया और रो रहे अपने साथियों को डांटा।

जहां तक नागर के चरित्र की ऐतिहासिकता का सवाल है, इसका ज़िक्र Benares Gazetteer में है। गजेटियर में नागर की सजा के सम्बन्ध में लिखा है कि “About thirty Nagars of Benares resenting the just conviction and sentence on one of their number, proceeded to create disturbance.”

(४)

बात उस कजरी से शुरू हुई थी जिसकी टेक है “नागर नैया जाला काले पनिया रे हरि” जो कि पंडित शिव प्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय की अमर कृति बहती गंगा के एक चैप्टर का शीर्षक भी है।

महाराजा चेतसिंह को वारेन हेस्टिंग्स द्वारा काशी की गद्दी से हटाए जाने के बाद काशी के सपूतों के एक समूह, जिन्हें गुंडा कहा गया, ने अंग्रेज़ो और उनके पिट्ठुओं के प्रति एक घृणा पाल रखी थी जिसका प्रदर्शन प्रायः “अविनय अवज्ञा” के रूप में होता था। दाताराम नागर इसी प्रकार के एक बागी थे। इनके ठीक विपरीत थे वाराणसी ज़िले के दक्षिणी छोर और मिर्ज़ापुर में सक्रिय बनकट मिसिर। उनको अंग्रेज़ प्रशासन का प्रश्रय था लिहाज़ा मनमानी भी करते थे।

दोनों ही एक दूसरे की आंखों में खटकते थे। एक दिन बाकायदा आमंत्रण देकर दोनो एक दूसरे के आमने सामने हुए और उनमें द्वंद्व युद्ध हुआ। बनकट मिसिर निरस्त्र होकर भाग खड़ा हुआ और नागर उसके पीछे पीछे भागे। वहीं रास्ते में रात के अंधेरे में उन्हें एक स्त्री दिखाई दी। इस भेंट को मैं शब्दशः रुद्र काशिकेय के ही शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूं:

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अत्यन्त प्रगल्मा की तरह उसने हँसकर नागर का हाथ थाम लिया। नागर के शरीर में बिजली दौड़ गई । रक्तस्रोत के आलोडन से उसके शरीर को मासपेशियाँ सनसना डठीं । उसने उसे स्नेहार्द्र प्रलुब्ध दृष्टि से देखा | उसके भी हाथ उठे ओर उसने ज्योत्स्ना-स्नात सुरापूर्ण पात्र के समान मदिर उस रमणीय स्त्री के कमनीय कलेवर को अपनी ओर खींचा | रमणी खिंचने का उपक्रम कर ही रही थी कि नागर चौंका और उसका हाथ छोड़ते हुए उसने हल्के झटके से अपना हाथ भी छुड़ा लिया | नारी गिरते-गिरते बची।

नागर को सहसा अपने पिता का वचन स्मरण हो आया था जो उसे वीरब्रत में दीक्षित करते समय उसके पिता ने कहे थे---“बेटा ! इस व्रत का घारण करने वाला पर-स्त्री को माता समझता है ।” और उसके पिता वह व्यक्ति थे जिन्होंने नागर ब्राह्मणों के कुलदेवता भगवान हाटकेश्वर की स्थापना काशीजी में की थी । उसने तड़पकर पूछा---“ तू कौन है?”

“ऐसे ही पूछा जाता है ?” नारी ने उलटे प्रश्न किया । नागर दो कदम पीछे हटा । नारी के समक्ष कभी परुष न होने बाला उसका हृदय स्वस्थ होते ही पुनः स्निग्ध हो गया था। उसने हताश-से स्वर में कहा—“अच्छा भाई, तुम कौन हो?” नारी हँसी, उसने उत्तर दिया—‘पहले एक प्रतिष्ठित ठाकुर की कुँचारी कन्या थी, अब किसी की रखैल कसबिन हूँ।“

“ऐसा कैसे हुआ?”नागर ने पूछा।

“वैसे ही जैसे यहाँ आते-आते तो तुम मर्द थे पर यहाँ आते ही देवता बन गए।”

“तुम्हे कसबिन किसने बनाया?”

“सब मिसिर महाराज की किरपा है। साल भर हुआ मैं अपनी बारी में आम बीन रही थी जहाँ से मिसिर ने मुझे उठवा मंगाया और कसबिन से भी बदतर बनाकर रख छोड़ा है।”

“इस बखत यहाँ केसे आई हो?”

“सुना था आज मिसिर से किसी की बदी है। देखने आई थी कि मिसिर का गला कटे और मेरी छाती ठंडी हो।”

“अब क्या?”

“क्या कहूँ? भागती बखत मिसिर ने मुझे यहाँ देख लिया है। अब बड़ी दुर्दशा से मेरी जान जायगी। तुम्हारी सरन हूँ, रच्छा करो।”

नागर ने दो मिनट कुछ सोचा; फिर बोला--- तुम नारघाट चली जाओ। वहीं घाट पर में तुमसे मिलूँगा ।”?

रमणी फिर हँसी। नागर मुस्करा उठा।

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इस प्रसंग के अंतिम दो वाक्यों में रुद्र काशिकेय ने संकेत दे दिया है कि प्रेम दोनों के ही हृदयों में अंकुरित हो चुका था।

बहरहाल, उस समय का समाज इस प्रकार का नहीं था कि नागर महाराज उसे घर में ले आते। लिहाज़ा उन्होंने नारघाट पर ही एक किराये का घर लेकर उसे अवस्थित किया तथा आजीविका के लिए नृत्य संगीत का प्रशिक्षण दिलवाया।

रुद्र काशिकेय ने आगे लिखा है, “जब कभी वह मिर्जापुर जाता तब उसकी सारी व्यवस्था देख-सुन दिन रहते ही उसके यहाँ से चला आता । रात उसके घर कभी न ठहरता । उसे वह सुन्दर पुकारता था। वह उसे सुन्दर लगती थी।“

किस प्रकार का प्रेम था यह भाई? भावना थी, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी। मिलते थे लेकिन वासना का सम्बन्ध नहीं था। अंग्रेज़ी में एक विशेषण है “platonic love”। लेकिन मुझे इसके लिए शहरयार का शेर सबसे उपयुक्त लगता है:

तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए 
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने

लेकिन जब नागर को काले पानी की सज़ा हुई तो सुंदर की व्यथा कजरी बनकर फूट पड़ी।

अरे रामा, नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा,
नागर नेया जाला कालेपनियाँ रे हरी
घरवा में रोवें नागर, माई औ बहिनियाँ रामा,
सेजिया पे रोवे बारी घनियाँ रे हरी!
खूंटियां पर रोवे नागर ढाल तरवरिया रामा,
कोनवाँ में रोबे कड़ाबिनियाँ रे हरी !
रहिया में रोवे नागर संगी और साथी रामा
नार घाट पर रोवे ई कस्बिनिया रे हरी
जो मैं जनत्यूं नागर जइबा कालेपनिया रामा,
हमहू चलि अवत्यूं बिनु गवनवा रे हरी.

इति।🙏🙏