Monday, 16 December 2024

काशी के कंकड़ शिव शंकर समान हैं

 काशी के कंकड़ शिव शंकर समान हैं

यह वाक्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के एक लेख से लिया गया है। पुराने काशी वासी अक्सर इसका उल्लेख किया करते थे। इस एक वाक्य में काशी की सांस्कृतिक विरासत को समाहित किया जाता था।

मुझे यह वाक्य क्यों याद आया और मैं यह लेख क्यों लिख रहा हूँ? दरअसल पिछले एक दशक में काशी का बहुत ‘विकास’ हुआ है। इसके उदाहरण जगह जगह देखने को मिलते हैं। सड़कें चौड़ी हो गई हैं, जगह जगह फ्लाईओवर बन गए हैं, घाटों का जबर्दस्त सुंदरीकरण हो गया है, विश्वनाथ मंदिर के परिसर का विस्तार और सुंदरीकरण हो गया है। और भी बहुत कुछ है। 2014 से यह देश के प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र है, इसलिए वी आई पी कांस्टीट्यूएंसी है। निस्संदेह “ease of living” के नजरिए काशी ने अप्रतिम प्रगति की है और इस पर हर किसी को खुश होना चाहिए।

लेकिन “काशी” क्या एक शहर मात्र है? पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि विकास की परतों के नीचे इस शहर की संस्कृति की अद्वितीयता दब सी गई है।

मेरे जैसों के लिए काशी मात्र एक शहर कभी नहीं रहा, यह एक जीवन्त चरित्र, एक “organism” रहा है। और यही काशी को काशी बनाता है, जो किसी अन्य शहर, मसलन चंडीगढ़, गाजियाबाद, मेरठ, बरेली से भिन्न है।

अब फिर आते हैं भारतेन्दु के वाक्य पर। हर मुहल्ले, हर घाट के पीछे एक इतिहास है। लहुराबीर नाम कैसे पड़ा? चेतगंज नाम कैसे पड़ा? गायघाट क्यों कहा गया? पुरानी पीढ़ी के लोग हर स्थान की कहानी जानते थे जो किसी स्थान देवता या किसी जननायक से जुड़ी होती थी। और इसी से जुड़े होते थे पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठान और उत्सव। तुलसीघाट की नाग नथैया, चेतगंज की नक्कटैया, नाटी इमली का भरत मिलाप, सावन में दाताराम नागर से जुड़ी कजरी और जलेबा वगैरह। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि हम “क्या पाया” पर तो ध्यान देते हैं, लेकिन “क्या खोया” कि चर्चा नहीं होती।

मैं राजघाट / प्रह्लाद घाट में रहा हूं और भैरोनाथ, विशेश्वर गंज, मैदागिन, बड़ा गणेश और दारानगर जैसे मोहल्लों के आस पास बड़ा हुआ हूं। मैं प्रह्लाद घाट से जुड़ी, और अब प्रायः लुप्त हो चुकी, परम्परा का ज़िक्र करना चाहता हूं।

प्रह्लादघाट पर गंगा तट पर हर साल दो दिनों की नृसिंह लीला हुआ करती थी। जो वैशाख के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को शुरू होती थी और चतुर्दशी को नृसिंह जयंती को खंभा फटने के साथ संपन्न होती थी। होने को यह अब भी होती है, दो दिन के स्थान पर एक दिन। लेकिन इसमें रुचि कुछ परिवारों तक सीमित है और पैट्रोनेज के अभाव में यह सिमट गई है। प्रह्लाद घाट की सीढ़ियों के ऊपर भगवान नृसिंह का एक मन्दिर भी है जो प्रायः उपेक्षित रहता है।

(२)

काशी की कहानी में एक वर्ग था काशी के गुंडों का। समय के साथ प्रचलित रूप में यह शब्द सिर्फ़ नकारात्मक आभास ही कराता है। और अंग्रेज़ी में अगर इसके समानार्थी ढूंढेंगे तो “goon”, “gangster” और “rascal” जैसे शब्द ही मिलेंगे।

किसी बाहर वाले के लिए यह मानना कठिन होगा कि काशी के गुंडों में हीरोइज़्म की एक परम्परा थी। यह एक ऐसा वर्ग था जो अन्याय और अराजकता की प्रतिक्रिया स्वरूप बागी हो जाता था। जय शंकर प्रसाद की कहानी “गुंडा” कुछ यूं कहती है:

“गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्मदर्शन के वादविवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्दसे हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णवधर्म भी उस विशृंखलता में, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्रबल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंहवृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राणभिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।“

प्रसाद की कहानी के नायक नन्हकू सिंह तो साहित्यकार द्वारा रचे गए पात्र थे। किन्तु शिव प्रसाद मिश्र “रुद्र काशिकेय” ने अपनी कालजई कृति “बहती गंगा” में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की काशी के दो वास्तविक चरित्रों, दो गुंडों, दाताराम नागर और भंगड़ भिक्षुक, को नायक के रूप में रखकर लिखा है।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि काशी की एक परम्परागत कजरी (श्रावण मास में गाया जाने वाला लोक गीत) , जो लगभग दो सदी पुरानी है, दाताराम नागर को कालेपानी की सज़ा होने पर उनकी रक्षिता गौनहारिन सुन्दर ने गाई थी। तिथि थी श्रवण के कृष्ण पक्ष की नवमी (वर्ष पक्का नहीं पता) जब नागर को कालेपानी के लिए नाव में बैठाया गया।

(३)

काशी पर बहुत कुछ लिखा गया है। स्कंद पुराण और शिव पुराण दोनों में ही काशी खण्ड है। लेकिन अगर बात आधुनिक लेखन की हो तो मैं दो लेखकों का खास तौर पर ज़िक्र करना चाहूंगा। संयोगवश दोनों ने ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन किया था और कुछ काल के लिये सहकर्मी भी रहे। ये थे पंडित शिव प्रसाद मिश्र ‘रुद्र काशिकेय’ और डॉक्टर शिव प्रसाद सिंह। डॉक्टर सिंह ने काशी पर एक त्रयी (trilogy) लिखी है: ‘वैश्वानर’, ‘नीला चांद’ और ‘गली आगे मुड़ती है’। रुद्र काशिकेय ने एक ही कालजयी पुस्तक लिखी है ‘बहती गंगा’। रुद्र काशिकेय के लिए ‘बहती गंगा’ उसी तरह है जैसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी के लिए ‘उसने कहा था’।

दाताराम नागर का चरित्र ‘बहती गंगा’ के एक अध्याय “नागर नैया जाला काले पनिया रे हरी” का नायक है। मेरा अपने मित्रों से निवेदन है कि यदि आप अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं सदी के मध्य तक लगभग दो सौ वर्षों के काशी के सामाजिक विकास को समझना चाहते हैं तो यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। इस पुस्तक का पहला संस्करण 1951 में प्रकाशित हुआ था। इसके प्राक्कथन में श्री सीताराम चतुर्वेदी ने लिखा है:

“बहती गंगा ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें पिछले दो सौ वर्षों की काशी के मस्तीमय जीवन का सरस विश्लेषण है, जिसके पात्र वास्तविक हैं और जो अपने वास्तविक जीवन में कल्पना को परारुत कर देने वाली घटनाओं की सृष्टि करके उसके सजीव, सक्रिय, अलौकिक, कौतूहल पूर्ण नट बनकर स्वयं उपन्यास का अवतार बनकर जी गए हैं, मर गए हैं; जिनके पौरुष की गाथा पढ़कर आश्चर्य होता है, श्रद्धा होती है और गर्व होता है”

“इस उपन्यास के स्रष्टा पं० शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ इतिहास और हिन्दी साहित्य के तो विलक्षण पंडित हैं ही, साथ ही वे बनारसी जीवन के साक्षात अवतार हैं। काशी का जीवन क्या है और क्‍या रहा है इसे वे जिस सूक्ष्मता के साथ जानते हैं उतना पढ़े-लिखे लोगों में कदाचित्‌ कोई विरला ही जानता हो। उनके उपन्यास में जो सजीवता है उसका कारण यही है कि उन्होंने बलपूर्वक पात्रों को कल्पना करके उन्हें कृत्रिम रंगों से रंगकर आदर्श बनाने का आडम्बर वहीं किया और यही कारण है कि उनका उपन्यास एक नया जीवन और हिन्दी के गौरवमय इतिहास का एक नवीन ज्योतिमय पृष्ठ खोलकर अवतरित हुआ है।“

मेरा आलेख थोड़ा लंबा होता जा रहा है। इसलिए दाताराम नागर पर लौटते हैं। दाताराम नागर कोई काल्पनिक चरित्र (fictional character) नहीं हैं। इनके नाम से जिस कजरी की टेक “नागर नैया जाला काले पनिया रे हरी” है वह दो सौ वर्षों से काशी की परम्परा का हिस्सा बनी हुई है।

वारेन हेस्टिंग्स द्वारा काशी राज्य की लूट और राजा चेतसिंह की दुर्दशा देखकर जिस समय काशी अचेत होने त्वगी तब उनके नालायक बेटे, जो गुण्डे कहलाते थे, सचेत हुए और उन्होंने विदेशी ‘मलिच्छ’ के प्रति घृणा का व्रत लिया । ऐसे लोगों में दाताराम नागर और भंगड़ भिक्षुक प्रमुख थे। उस समय कोई गोली बन्दूक नहीं चलती थी, यह लोग अपने बाहुबल और शारीरिक दक्षता के बल पर जीते थे। इनके अखाड़े होते थे और ये शरीर को बलशाली बनाने और शस्त्र चलाने की शिक्षा लेते थे। इसी अखाड़े की शिष्यपरम्परा में तलवारिया दाताराम नागर हो गए हैं। काल भैरव के मन्दिर के पास, हाटकेश्वर के मन्दिर के बगल में इनका घर था । दरअसल उस इलाके में नागर ब्राह्मणों के कई परिवार थे।

अपने दबंग स्वभाव के कारण वे कुछ लोगों, जो अंग्रेज़ी हुकूमत के पिट्ठू थे, की आंखों में खटकते थे। उनमें एक थे मिर्ज़ापुर के बनकट मिसिर जो एक बाहुबली अपराधी थे और एक था मुंशी फ़ैयाज़ अली जो सरकार का एक छोटा कर्मचारी था।

मुद्दा बना मुहर्रम का दुलदुल का जुलूस। हर साल यह जुलूस बुलानाला, ठठेरी बाज़ार होकर निकलता था जहां मुस्लिम आबादी शून्य थी। कहते हैं, जब विश्वेश्वर गंज की सड़क बन गई तो दाता राम ने भुतही इमली, बुलानाला तथा ठठेरी बाजार वाली गली के रास्ते दुलदुल घोड़े को ले जाने का विरोध किया । उनका कहना था कि जब सड़क बन गईं तब घोड़ा सड़क के रास्ते ले जाना चाहिए। लेकिन फ़ैयाज अली की शह पर जुलूस ज़िद करके उसी रास्ते ले जाया गया। इस पर तलवार चल गईं, दाताराम ने अद्भुत कला प्रदर्शित की। इन्होंने दुलदुल के घोड़े को काट दिया। जुलूस में शामिल कुछ लोग घायल हुए और सभी भाग गए। काशी में दंगे भड़क उठे।

दाता राम नागर पर वारंट निकला । ये कटेसर में बड़ी कठिनाई से पकड़े गए। इनको गिरफ्तार करने गए पुलिस दल के कई लोगों को इन्होंने खाली हाथ लोटे की सहायता से घायल कर दिया।इनको कालेपानी की सज़ा हुई। इन्होंने सज़ा को बहुत शालीनता और साहस के साथ स्वीकार किया और रो रहे अपने साथियों को डांटा।

जहां तक नागर के चरित्र की ऐतिहासिकता का सवाल है, इसका ज़िक्र Benares Gazetteer में है। गजेटियर में नागर की सजा के सम्बन्ध में लिखा है कि “About thirty Nagars of Benares resenting the just conviction and sentence on one of their number, proceeded to create disturbance.”

(४)

बात उस कजरी से शुरू हुई थी जिसकी टेक है “नागर नैया जाला काले पनिया रे हरि” जो कि पंडित शिव प्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय की अमर कृति बहती गंगा के एक चैप्टर का शीर्षक भी है।

महाराजा चेतसिंह को वारेन हेस्टिंग्स द्वारा काशी की गद्दी से हटाए जाने के बाद काशी के सपूतों के एक समूह, जिन्हें गुंडा कहा गया, ने अंग्रेज़ो और उनके पिट्ठुओं के प्रति एक घृणा पाल रखी थी जिसका प्रदर्शन प्रायः “अविनय अवज्ञा” के रूप में होता था। दाताराम नागर इसी प्रकार के एक बागी थे। इनके ठीक विपरीत थे वाराणसी ज़िले के दक्षिणी छोर और मिर्ज़ापुर में सक्रिय बनकट मिसिर। उनको अंग्रेज़ प्रशासन का प्रश्रय था लिहाज़ा मनमानी भी करते थे।

दोनों ही एक दूसरे की आंखों में खटकते थे। एक दिन बाकायदा आमंत्रण देकर दोनो एक दूसरे के आमने सामने हुए और उनमें द्वंद्व युद्ध हुआ। बनकट मिसिर निरस्त्र होकर भाग खड़ा हुआ और नागर उसके पीछे पीछे भागे। वहीं रास्ते में रात के अंधेरे में उन्हें एक स्त्री दिखाई दी। इस भेंट को मैं शब्दशः रुद्र काशिकेय के ही शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूं:

------------------

अत्यन्त प्रगल्मा की तरह उसने हँसकर नागर का हाथ थाम लिया। नागर के शरीर में बिजली दौड़ गई । रक्तस्रोत के आलोडन से उसके शरीर को मासपेशियाँ सनसना डठीं । उसने उसे स्नेहार्द्र प्रलुब्ध दृष्टि से देखा | उसके भी हाथ उठे ओर उसने ज्योत्स्ना-स्नात सुरापूर्ण पात्र के समान मदिर उस रमणीय स्त्री के कमनीय कलेवर को अपनी ओर खींचा | रमणी खिंचने का उपक्रम कर ही रही थी कि नागर चौंका और उसका हाथ छोड़ते हुए उसने हल्के झटके से अपना हाथ भी छुड़ा लिया | नारी गिरते-गिरते बची।

नागर को सहसा अपने पिता का वचन स्मरण हो आया था जो उसे वीरब्रत में दीक्षित करते समय उसके पिता ने कहे थे---“बेटा ! इस व्रत का घारण करने वाला पर-स्त्री को माता समझता है ।” और उसके पिता वह व्यक्ति थे जिन्होंने नागर ब्राह्मणों के कुलदेवता भगवान हाटकेश्वर की स्थापना काशीजी में की थी । उसने तड़पकर पूछा---“ तू कौन है?”

“ऐसे ही पूछा जाता है ?” नारी ने उलटे प्रश्न किया । नागर दो कदम पीछे हटा । नारी के समक्ष कभी परुष न होने बाला उसका हृदय स्वस्थ होते ही पुनः स्निग्ध हो गया था। उसने हताश-से स्वर में कहा—“अच्छा भाई, तुम कौन हो?” नारी हँसी, उसने उत्तर दिया—‘पहले एक प्रतिष्ठित ठाकुर की कुँचारी कन्या थी, अब किसी की रखैल कसबिन हूँ।“

“ऐसा कैसे हुआ?”नागर ने पूछा।

“वैसे ही जैसे यहाँ आते-आते तो तुम मर्द थे पर यहाँ आते ही देवता बन गए।”

“तुम्हे कसबिन किसने बनाया?”

“सब मिसिर महाराज की किरपा है। साल भर हुआ मैं अपनी बारी में आम बीन रही थी जहाँ से मिसिर ने मुझे उठवा मंगाया और कसबिन से भी बदतर बनाकर रख छोड़ा है।”

“इस बखत यहाँ केसे आई हो?”

“सुना था आज मिसिर से किसी की बदी है। देखने आई थी कि मिसिर का गला कटे और मेरी छाती ठंडी हो।”

“अब क्या?”

“क्या कहूँ? भागती बखत मिसिर ने मुझे यहाँ देख लिया है। अब बड़ी दुर्दशा से मेरी जान जायगी। तुम्हारी सरन हूँ, रच्छा करो।”

नागर ने दो मिनट कुछ सोचा; फिर बोला--- तुम नारघाट चली जाओ। वहीं घाट पर में तुमसे मिलूँगा ।”?

रमणी फिर हँसी। नागर मुस्करा उठा।

----------------

इस प्रसंग के अंतिम दो वाक्यों में रुद्र काशिकेय ने संकेत दे दिया है कि प्रेम दोनों के ही हृदयों में अंकुरित हो चुका था।

बहरहाल, उस समय का समाज इस प्रकार का नहीं था कि नागर महाराज उसे घर में ले आते। लिहाज़ा उन्होंने नारघाट पर ही एक किराये का घर लेकर उसे अवस्थित किया तथा आजीविका के लिए नृत्य संगीत का प्रशिक्षण दिलवाया।

रुद्र काशिकेय ने आगे लिखा है, “जब कभी वह मिर्जापुर जाता तब उसकी सारी व्यवस्था देख-सुन दिन रहते ही उसके यहाँ से चला आता । रात उसके घर कभी न ठहरता । उसे वह सुन्दर पुकारता था। वह उसे सुन्दर लगती थी।“

किस प्रकार का प्रेम था यह भाई? भावना थी, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी। मिलते थे लेकिन वासना का सम्बन्ध नहीं था। अंग्रेज़ी में एक विशेषण है “platonic love”। लेकिन मुझे इसके लिए शहरयार का शेर सबसे उपयुक्त लगता है:

तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए 
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने

लेकिन जब नागर को काले पानी की सज़ा हुई तो सुंदर की व्यथा कजरी बनकर फूट पड़ी।

अरे रामा, नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा,
नागर नेया जाला कालेपनियाँ रे हरी
घरवा में रोवें नागर, माई औ बहिनियाँ रामा,
सेजिया पे रोवे बारी घनियाँ रे हरी!
खूंटियां पर रोवे नागर ढाल तरवरिया रामा,
कोनवाँ में रोबे कड़ाबिनियाँ रे हरी !
रहिया में रोवे नागर संगी और साथी रामा
नार घाट पर रोवे ई कस्बिनिया रे हरी
जो मैं जनत्यूं नागर जइबा कालेपनिया रामा,
हमहू चलि अवत्यूं बिनु गवनवा रे हरी.

इति।🙏🙏




Thursday, 6 June 2024

The Lok Sabha Verdict 2024 - My Takeaways

We are all entitled to our interpretations and takeaways. Read carefully. It's not about Modi or Congress. 

The 2024 campaign was negative from both sides, based on generating fears. Fear of losing reservations on one side, redistribution of wealth, caste census, and raising the quota on the other.

My fear was that the process of economic reforms and growth of the economy should not take a U turn. I have taken a huge sigh of relief. Modi will continue and his key ally, Chandra Babu Naidu, may be many things but he is pro reforms. 

Why did I fear so? See, economic reforms were initiated by PV Narsimha Rao's government (1991-96). Even though this period of stability was followed by two untidy coalition governments of Deve Gouda and Gujral, with outside support of Congress, the direction of reforms didn't change. In fact, the 1997 budget, presented by P Chidambaram, is hailed as the "dream budget." The budget presented a road map for economic reforms in India and included lowering income tax rates, removal of the surcharge on corporate taxes, and reduced corporate tax rates. 

The reforms got further impetus under Atal Bihari Vajpayee (1998-2004), and the direction of the economy remained growth oriented.

Whatever the reasons for the setback to Vajpayee and the NDA and its "India Shining" campaign, it was interpreted by the next government as a call for populism. The support of CPI (M) was no less responsible for a cautious approach, if not an about turn, in the economic policy.

So, as chance would have it, the same Manmohan Singh, who had steered the economy towards reforms, failed, partly due to coalition compulsions and, largely, due to backseat driving by his political masters, in giving momentum to the economy. While UPA1 appeared to be doing well in terms of growth (largely due to the tailwind of the previous regime), the UPA 2 witnessed large-scale corruption and absolute policy paralysis.

The stage was set for a change and the country delivered the first clear majority verdict in 2014, after a gap of three decades.

Between 2014 and 2024, the economy has been doing remarkably well. It absorbed the Covid shock and bounced back with tremendous resilience. 

At the macro level, India's forex reserves, US$ 322.6 billion in 2014, have more than doubled to $648.56 billion in 2024.

Per capita GDP, 1,559.86 USD in 2014, has risen to 2,845 USD in 2024. And this is in spite of the population growth during the period, estimated to be around 12.8%.

The government data claims that 250 million people have been brought above the poverty line.

Where has Modi not succeeded (I will not say failed)?
His detractors claim two things: Mahangai and Berozgari. 

The first point lacks substance. As per the World Bank data the average annual inflation between 2014 to 2024 was 5.46%, as against 8.19% during the ten years preceding that.

However, there have indeed been two major drawbacks:
a) the employment generation has not been commensurate with the growth of the economy. You can call it growth without jobs.
b) The concentration of wealth. I am not advocating the foolish idea of wealth distribution or redistribution. Far from it. In my view a wider and more equitable distribution could have been achieved had the start ups and MSME sector done as well as the large corporates. While there are certainly some success stories, it should have been more broad based.

But give the credit where it is due. 
Had anyone ever imagined before 2014 that hygiene, toilet construction and end of open defecation will be pursued in mission mode? Modi did it.

This is just one example. Hasn't the Jan Dhan Scheme and DBT hit the source of corruption and created an environment of ease of living?

I don't want to add an exhaustive list of achievements of the government.

Yes there have been spectacular successes but, also, some shortcomings. They have fallen short of meeting the huge expectations that they have created through tall promises. The people of the country have raised the bar of expectations disproportionately.

But where do we go from here? Should we take a complete U turn in the opposite direction? Should we throw the baby with the bath water?

Many of us have issues with, what many choose to call, arrogance. But let us face it. Modi is still our best bet for steering the country forward. We need a course correction on many fronts. Issues like job creation, making the society more equitable and just can be achieved only through sustainable growth.

The economic reforms must continue. 

Modi 3.0 is necessary for continuation of policy and reforms. 

The verdict, though short of an absolute majority, will ensure that.


Sunday, 21 January 2024

यह एक नए युग की शुरुआत है!

 यह एक नए युग की शुरुआत है!

क्या हम जानते हैं कि अयोध्या में मूल राम मंदिर को ध्वस्त करके बनाई गई बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण संभवतः मानव जाति के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना है? 

मैं इतने व्यापक कैनवास पर इसकी चर्चा क्यों कर रहा हूं?

दोनों बड़े अब्राहमिक धर्मों ने अपने आविर्भाव के समय से ही यह रीत बनाई कि हमसे पहले जो था वह "pagan" या "zahilliyat" था और उसके प्रतीकों का नष्ट होना लाज़मी था।

अब हागिया सोफिया को लें। पहले यह एक कैथेड्रल था अब मस्जिद है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह कैथेड्रल बनने से पूर्व एक pagan मन्दिर था जिसे ध्वस्त करके कैथेड्रल बना था? रोमन साम्राज्य को परास्त करके ईसाई समुदाय ने अपने पूर्ववर्ती धर्मों को अवैध घोषित कर दिया था। इसी प्रकार यूरोप और उत्तरी अफ्रीका के तमाम पूजास्थल नष्ट कर दिए गए।

इस्लाम के उदय के बाद यही प्रक्रिया और अधिक उग्रता (ferocity)से, अधिक हिंसक तरीके से, दोहराई गई। इसका गुणगान करते हुए मुहम्मद इक़बाल ने अपनी नज़्म *शिकवा* में लिखा है:

हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र 

कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं मा'बूद शजर 

ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र 

मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर 

तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा 

क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा

........

थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में 

ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में 

दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में 

कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में

और दुनियां के अधिकांश हिस्सों से पूर्व अब्राहमिक धर्म मिट गए, उनके मानने वाले या तो कन्वर्ट हो गए, या मार डाले गए, और उनके पूजास्थल नष्ट कर दिए गए। उदाहरण के लिए ईरान, जो पारसियों का मूल स्थान था। इक़बाल की गर्वोक्ति देखिए:

तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने 

काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने 

किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को 

किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को

भारत एकमात्र अपवाद है जहां अब्राहमिक धर्म पूर्व स्थापित धर्म, जिसे हम सनातन कहते हैं, को समाप्त नहीं कर सके।

भारत में कुछ असामान्य घटित हुआ ह, कुछ ऐसा जिसे विश्व-विजेता एकेश्वरवादी विश्वास ने पहले कभी नहीं देखा था। पहले से मौजूद, बहुदेववादी (बहु ईश्वरवादी नहीं) धर्म - बहुकेंद्रित, देवी-देवताओं से भरा, त्योहारों में धूप जलाना और नृत्य करना - जीवित रहा। और केवल छोटे इलाकों में नहीं, जैसे उत्तरी अमेरिका में मूल अमेरिकियों को सीमित कर दिया गया। लाखों-करोड़ों हिंदू उन्हें बुझाने के प्रयासों को नकारते हुए डटे रहे। अब्राहमिक आक्रांताओं ने उनके मंदिरों को तोड़ दिया और अपवित्र कर दिया और, कुछ मामलों में, उस स्थान पर (न केवल राम के जन्मस्थान पर, बल्कि कृष्ण के जन्मस्थान पर भी) एक नया पूजा घर बनाया। कभी-कभी उन्होंने अपने द्वारा तोड़े गए मंदिरों के पत्थरों के टुकड़ों से मस्जिद भी बना ली। अपमान के प्रतीक के तौर पर पूर्व के पूजा घरों के निशान भी बनाए रखे (ज्ञानवापी मस्जिद)। फिर भी हिंदू मंदिर बनाते रहे और पूजा करते रहे। औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान जैसे क्रूर और बर्बर शासक अत्याचार करते रहे, हत्याएं करते रहे, मंदिर तोड़ते रहे, और आस्थावान पूजा करते रहे।

गौर करिए कि जिस काल में राम जन्मभूमि तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनाई गई (1526 से 1530 के मध्य) उसी समय गोस्वामी तुलसीदास (1511 से 1623) ने रामकथा को संस्कृत की बजाय जनभाषा अवधी में रचकर राम को जनमानस में महानायक के रूप में स्थापित किया। कल्पना कीजिए बालक तुलसी दास का मानस कितना आहत हुआ होगा जब एक बर्बर आक्रान्ता ने उनके आराध्य का मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई। लेकिन उन्होंने, और उनके जैसे लाखों करोड़ों ने, अपनी निष्ठा की ज्योति जलाए रखी और पांच सौ सालों के संघर्ष की परिणिती आज हम देख रहे हैं।



Saturday, 25 September 2021

Hum Dekhenge - In Support of Faiz

In late 2019, after the passage of the Citizenship Amendment Act, when India was witnessing countrywide protests, with Delhi’s Shaheen Bagh as the most prominent centre, there were protests in several university campuses also. During this turmoil, in one of the campuses a group of students took out a procession chanting Faiz’s nazm hum dekhenge. All of a sudden, Faiz was in the line of fire of Facebook patriots. You were made to feel as if Faiz was instigating some jihad or war against India. Most of those crying hoarse would not have bothered to read the nazm or to understand the context. Why bother? Some whipping boy was needed and Faiz, being a Pakistani, was a readymade target. So what if he was dead long ago? So what if there was no evidence of Faiz having dished out anti India rhetoric? Let us not place Faiz in the narrow compartment. He had a universal appeal.

Here, I want to alert my readers to not get distracted into thinking about CAA and the protests, the Government and the protestors, who was right and who was wrong, and to please keep the focus on a great poet and this immortal piece of poetry.

Why I am writing in defence of Faiz, you may ask. Well, Faiz, like Dinkar in India, was the voice of conscience of the people. This nazm, ham dekhene, sounds to me so similar to Dinkar’s clarion call simhasan khali karo ki janta aati hai. The vilification of Faiz was neither necessary nor warranted. I do not rule out the possibility of some elements using the nazm as a provocative tool, fully knowing how those unaware of the underlying meaning and the context would react, in an attempt to give themselves publicity and to gain sympathy as the name of Faiz would be involved.  If you pull certain words out of the context you are bound to misinterpret. Even further, if someone deliberately chooses a few selected lines to misguide and instigate, the outcome would be disastrous. So, let me, first of all explain the context.

After staging a coup and seizing power in Pakistan, Zia Ul Haq was looking to consolidate his hold on power. He thought that the Mullahs, on the fringes of the Pakistani society till then, should be encouraged to wield more clout. And this started hardline islamisation of the, till then open and liberal, Pakistani society. It would be difficult to believe today but the current Pakistani society is a far cry from what it once used to be, progressive and enlightened. Faiz, an incorrigible rebel, revolted and faced incarceration – including terms in prison and long terms of exile. This powerful nazm is a call for revolt and arousal of optimism in an oppressed society.

In the year 1985, a decree of General Zia-ul-Haq prohibited women from wearing sarees. Pakistan’s world-renowned singer Iqbal Bano, clad in a black saree, protested against the decree singing this nazm of Faiz Ahmed Faiz in front of a crowd 50,000 strong in a Lahore stadium. The stadium echoed with chants of ‘Inqilaab Zindabad’.

Now let me come to the nazm itself.

hum dekheñge

Lāzim hai ki hum bhī dekheñge

Vo din ki jis kā va.ada hai

Jo lauh-e-azal meñ likhkhā hai

We long to see, obviously we would see

The day of eternal justice promised to man

The day that is scripted on the page of eternity

 

Jab zulm-o-sitam ke koh-e-girāñ

Ruuī kī tarah uḌ jā.eñge

Ham mahkūmoñ ke pāñv-tale

Jab dhartī dhaḌ-dhaḌ dhaḌkegī

Aur ahl-e-hakam ke sar-ūpar

Jab bijlī kaḌ-kaḌ kaḌkegī

When the gigantic mountains of oppression

Will, like heaps of cotton, evaporate

When, underneath the feet of us, the ruled subjects

The earth will intensely vibrate

And, over the heads of those in power

The thunder of lightning will cannonade

 

The beauty of poetry lies in perfect choice of words. Faiz has chosen ‘dhadkegi’ for the oppressed (mahkūmoñ). Dhadkana means throb – a state combining hope, excitement and anxiety. For the oppressor (ahl-e-hakam) it is kaḌkegī. Kadakana is the thunder of lightning – something that generates the fear. That is what a revolutionary expects.

 

Jab arz-e-ḳhudā ke ka.abe se

Sab but uThvā.e jā.eñge

Ham ahl-e-safā mardūd-e-haram

Masnad pe biThā.e jā.eñge

Sab taaj uchhāle jā.eñge

Sab taḳht girā.e jā.eñge

When from the Kaaba on this earth of God

All idols will be removed

When we, the pure of heart,

Denied the glimpse to the seat of power,

Will be seated on the same high seat

When the crowns will be disgorged

And thrones of power, to dust flattened

 

This is where the trouble starts. If you read only the first two lines, you would get an impression as if this is an Islamic call for destruction of idols. And Indian Hindus, perennially nursing wounds caused by the Islamic invaders having destroyed their places of worship, would certainly get agitated by these lines. However, if you read the lines together, it becomes clear that ‘kaaba’ and ‘but’ are metaphors for the seat of power and the occupants thereof. Why did Faiz use these metaphors, one may ask? There are two explanations. Firstly, the imagery and metaphors used by a poet are usually lifted from the immediate surroundings of his upbringing. Secondly, the target audience. You have to speak a language that your audience understands.


(Let us look how similar these lines are to the opening lines of the poem of Ramdhari Singh Dinkar:

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है )

Let me return to Faiz and his nazm:

Bas naam rahegā allāh kā

Jo ġhā.eb bhī hai hāzir bhī

Jo manzar bhī hai nāzir bhī

The world will be only the Almighty’s domain

The Almighty who is both, invisible and in attendance

The Almighty who is both the spectator and the spectacle

 

Anyone familiar with the basic tenets of Islam would not use terms like ‘hazir’ and ‘manzar’ for Allah. The Allah of Faiz was the Universal God, Omnipresent, Omniscient and all pervasive.   

uTThegā anal-haq kā na.ara

jo maiñ bhī huuñ aur tum bhī ho

Aur raaj karegī ḳhalq-e-ḳhudā

Jo maiñ bhī huuñ aur tum bhī ho

There will be a war cry of ‘I am the truth’ (Anal-Haq)

The Truth embodied in you and me

And only the creation of God will rule

The same creation, which are you and me

 

Let me explain ‘anal-haq’.  This phrase was coined by Hussain bin Mansoor Al-Hallaj (c. 858 – 26 March 922), a Sufi saint and mystique. Anal haq is a famous controversial statement which led to a painful execution of its first narrator. Anal al Haq means “I am the Truth.” This is similar to the sanatani concept of ‘aham brahmasmi, denoting the presence of Brahm in everyone. The orthodox Muslims interpreted this to mean that he was claiming to be God himself, an act of blasphemy, whereas he had proclaimed, in his sublime spiritual ecstasy, simply a total annihilation of ego. Mansoor Al-Hallaj climbed the gallows with his head held high, not the least daunted by his imminent death. So, there should not be no doubt left about the nazm being a ‘faith neutral’ rebellious war cry.

I am not going to delve into whether the nazm, hitherto not known to a large section of Indian masses, was deliberately chosen by the agitators to give the oppressor-oppressed feel to the agitation, but the anti-agitation crowd certainly got unnecessarily agitated. I wanted to put the record straight by explaining the nazm with a proper perspective. As I have said above, a poet invariably makes use of metaphors and images that come naturally to him. 

My conclusion: This nazm, like the rest of Faiz's poetry, is an absolutely faith neutral piece of poetry, the type that defined the great progressive poets of the era - Sahir Ludhianavi being another one. You could agree or disagree with Faiz's political leanings and ideology, but please don't read what he has not said.

 


(Looking forward to hearing from my friends and readers. If you are kind to leave a comment please leave your name - KV)




Monday, 13 September 2021

 Sansar Hai Ek Nadiya Dukh Sukh Do Kinare Hain - Raftaar (1975)

मेरे प्रिय गीत (6)

I am writing a piece on a favourite song after a long gap. I was playing the collection of Mukesh on my Saregama Caravan. Those who have the instrument would know that you do not have any control over the order and choice of songs. They are randomly lined up by a software. Suddenly this song “संसार है एक नदिया दुःख सुख दो किनारे हैं’ from the film Raftaar (1975) came up and I was impulsively compelled to write this.

Although I was listening to this song after a long gap, I got reminded that this has been one of my most favorite songs of Mukesh. I realised how fond I had been of this song ever since it was released in 1975, when I was a teenager. My admiration for the song grew manifold as I started to understand the meaning of the lyrics from the viewpoint of a student of literature.

It is a purely personal choice because, to me, this song should be right up there among the top 5 or 10 songs of Mukesh and among the songs of the year 1975. However, if I try to match my personal preference with the popular choice, there would be a mismatch. Those days Binaca Geetmala, the most popular ranking program on radio, was the standard parameter. This song was not among the top 32 songs of the year and, if I recall correctly, not even a Sartaj Geet

The reasons are not difficult to understand. Firstly, the factors driving the mass appeal are not always the ingredients of the song in aesthetic terms. Secondly, those days, barring exceptions, the success of a song/album was directly linked to the success of the film. This film did not have a great run on the box office and the song failed to shoot up on the charts. Let us look at the basic information about the film. The movie was directed by Dinesh-Ramanesh (I do not think many would have heard the names), starring   Vinod Mehra, Moushumi ChatterjeeDanny Denzongpa and Madan Puri. Vinod Mehra was not a big draw at the box office, and never graduated to the big league as a solo lead. The film was a mediocre melodrama and got branded as a B Grade film, having average run in theatres. 

The music was composed by Sonik-Omi and the lyricist was Abhilash. As regards Sonik-Omi, in spite of composing some great songs in films like Dil Ne Phir Yaad Kiya, Mahua and Dharma they were mostly stuck in B-Grade films. To their credit they have one of the best qawwalis ever - Raaz ki baat kah doon to (Dharma). As regards Abhilash, the lyricist, apart from this song, he has to his credit Itni Shakti Hame Dena Data (Ankush), one of the best ever bhajans in films. But, the fact remains, Sonik-Omi were no RD Burman or Laxmi-Pyare and Abhilash was no Anand Bakshi, and their names could not push the sales of albums. As I say this, I do not want to show any disrespect to them. But commercial success is documented and tangible. 

Now, let me discuss my reasons for loving the song. Basically I go for a song for three key ingredients – the quality of poetry, the quality of composition and, of course, the quality of rendition. The quality of picturisation would be an icing on the cake but these three are the main deciders.

I will discuss these elements in the reverse order, singers first. This song has been sung by Mukesh and Asha Bhosle, with chorus in support. I do not think my readers can recall many great duets of Asha-Mukesh. There may not be more than a couple of dozen songs sung together by them. I can list some popular ones: Phir na keeje meri gustaakh nigaahi ka gilaNain tumhaare mazedaar o janaabe aali Teetar ke do aage teetar Wo subsh kabhi to aayegi Hum dono milke kaaghaz pe dil ke. The two had their unique styles. Mukesh was master of melancholy, and his reputation rests predominantly on that. Asha Bhosle has, in an illustrious career of several decades, sung songs of every genre with remarkable ease but her best came in peppy songs. In this song, melancholic-philosophical in tone, Mukesh is at his best in a familiar terrain and Ashaji has complemented him absolutely superbly. So, the effect is magical.

 

As regards the tune, Sonik-Omi have composed this song in Raag Shivranjani in Kaherva taal, which is ideal for its soothing pace. This is a pretty good example of Shivranjani, mostly sticking to the standard notes with only minor deviations. The most remarkable feature of the composition is brilliant use of violin in solo pieces, in the opening instrumentation as well as between the stanzas, giving it a space independent of the multi-piece orchestra which accompanies the chorus. Those who have seen the movie would know that Madan Puri is a musician in the film and he is seen with a violin on the screen in the song. The song is a bit long with four stanzas but the composers have managed to retain absolute control throughout the song, which was quite remarkable during those days without computers aiding the recording. 

 

Now let me discuss the most important of the three reasons, my biggest reason for loving this song, the lyrics. Hindi film industry presents such a wide spectrum of lyrics. At one end of the spectrum are songs penned by poets and lyricists like Sahir, Shakeel, Kavi Pradeep, Shailendra, Neeraj and many more, which can qualify for genuine poetry of high order. At the other end you would find a lot of meaningless garbage without substance. This song is, in my view, genuine and sublime poetry with philosophical flavour. Let us discuss and analyse the lyrics.

 संसार है इक नदिया, दुःख-सुख दो किनारे हैं
ना जाने कहाँ जाएँ, हम बहते धारे हैं

These lines make a statement about man being driven by the vagaries of destiny and reminds me of the following Rubai of Omar Khayyam:

Into this Universe, and Why not knowing,
Nor Whence, like Water willy-nilly flowing:
     And out of it, as Wind along the Waste,
I know not Whither, willy-nilly blowing.


चलते हुए जीवन की, रफ़्तार में इक लय है

इक राग में एक सुर में, सँसार की हर शय है 
इक तार पे गर्दिश में, ये चाँद सितारे हैं

This stanza conveys that behind the apparent randomness there is a harmonious design, a pattern about everything in the universe. Once, while reading a poem titled The Rhythm Of Life by George Krokos, a contemporary Australian poet, I felt how similar was the poem to this stanza:

The rhythm of life is like an endless melody
and goes on regardless of where we might be.
Throughout the day and all during the night
it never stops tho’ it’s not obvious to sight.

धरती पे अम्बर की, आँखों से बरसती है

इक रोज़ यही बूँदें, फिर बादल बनती हैं

इस बनने बिगड़ने के, दस्तूर में सारे हैं

This stanza takes the philosophy of life to the next level, talking about the cyclic nature of creation, evaporation and recreation, about the indestructibility of the “elements”. The natural process of rain is symbolic of the essential processes of life. Having been a student of literature I often think about similar pieces. And this stanza reminds me of Walt Whitman’s poem The Voice of the Rain:


 I am the Poém of Earth, said the voice of the rain,

Eternal I rise impalpable out of the land and the bottomless sea,

Upward to heaven, whence, vaguely formed, altogether changed, and yet the same,

I descend to lave the drouths, atomies, dust-layers of the globe,

And all that in them without me were seeds only, latent, unborn,

And forever, by day and night, I give back life to my own origin, and make pure

and beautify it: 

How much more can be compressed in one song? In the next two stanzas we witness a switch – from the cosmic whole to the individual components, from the universe to the central component of the universe, the individual human being.


कोई भी किसी के लिए, अपना पराया है

रिश्तों के उजाले में, हर आदमी साया है

कुदरत की भी देखो तो, ये खेल निराले हैं

The philosophical content of these lines is not as lofty as the first two stanzas. However, those who have watched the film would realise that these lines represent a transition establishing a new phase of relationship between the characters played by Madan Puri and Moushumi Chatterjee, both trapped in the agonies of the past.


है कौन वो दुनिया में, ना पाप किया जिसने

बिन उलझे काँटों से, हैं फूल चुने किसने

बेदाग नहीं कोई, यहाँ पापी सारे हैं

These lines make a very strong statement that the journey of life presents both – thorny pains and rosy delights. The lines inspire for continuing the journey of life with equanimity towards pains and pleasures as they unfold. Let there be no guilt for the errors and life must keep moving on.


Lastly, though the movie was a mediocre, run of the mill, melodrama, this song's picturisation is absolutely fantastic and both the actors are extremely impressive on the screen.


So, that is all about the song and its appeal. I doubt if the song has ever captured so much attention of my readers. Here is the YouTube link of the song. Please listen to it again, with a fresh outlook:

https://www.youtube.com/watch?v=BvZop3HFgwc


(For the trivia lovers here is some additional information. Mukesh has another brilliant song in Shivranjani to his credit - Kai Sadiyon Se Kai Janmon Se from film Milaap, another one set in Kaherva taal. If you hear the two songs one after another, the two sound so similar.)



Acknowledgement and Disclaimer:
The song links have been embedded from the YouTube only for illustration of the points. This blog claims no copyright over these, which rests with the respective owners.